श्राद्ध पक्ष के साथ शुरू होता है 16 दिन का उत्सव, लोकमान्यता में पार्वती जी का रूप हैं संजा माता

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श्राद्ध पक्ष के साथ शुरू होता है 16 दिन का उत्सव, लोकमान्यता में पार्वती जी का रूप हैं संजा माता

 श्राद्ध पक्ष के साथ शुरू होता है 16 दिन का उत्सव,

लोकमान्यता में पार्वती जी का रूप हैं  संजा माता.

सुधीर शर्मा,मनोज उपाध्याय,

श्राद्ध पक्ष की आमद होते ही मालवा, निमाड़ और राजस्थान के क्षेत्रों में एक बिटिया के अपने मायके आने के उत्सव की शुरुआत हो जाती है।

इस बिटिया का नाम है संजा, जो सोलह दिनों के लिए हर घर में आती है और लड़कियों की सहेली बन जाती है।

चित्रकला, लोकगीत, पूजा से सुसज्जित इस त्योहार की सुगंध अंचल के क्षेत्रों को आज भी सुवासित करती है।

संजा, संझा या सांझी-

 यह लोकपर्व चाहे जिस नाम से प्रचलित हो, लेकिन इतना तो तय है कि इसका सरोकार कुंवारी कन्याओं से ही है। उत्सव का शुभारम्भ भाद्रपद की पूर्णिमा से होता है। उन दिनों श्राद्धपक्ष का भी समय रहता है। कहा जाता है कि सोलह दिनों के लिए संजा माता अपने पीहर लौटती हैं और वहां उनकी सहेलियां उनके साथ ख़ूब हंसी-ठिठोली करती हैं। सहेलियों के बीच संजा बाई को लेकर किया जाने वाला परिहास बेहद स्वस्थ होता है क्योंकि उसका माध्यम लोकगीत है। संजा का पर्व न सिर्फ़ कला और संस्कृति को साथ लाता है बल्कि लोकगीत की विधा से कन्याओं के आचरण और उनके भावी जीवन से जुड़े संकेतों को भी प्रस्तुत करता है।


प्रकृति का उत्सव है संजा

 वैसे तो महिलाओं और उत्सवों के बीच गहरा सम्बंध है। उत्सवों में उत्साह और रस, दोनों स्त्रियों से ही हैं, लेकिन संजा-उत्सव की विशिष्टता यह भी है कि यह महिलाओं को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़े रखने का कार्य भी करता है। संजा को रूप देने में आधार गाय का गोबर होता है और उसे पूरित फूल-पत्तियां करती हैं। इसी तरह कच्ची-पक्की दीवारों पर एक कला जन्म लेती है। प्रत्येक दिन एक नई आकृति का निर्माण होता है जिसमें पूनम के दिन पाटला, दूज को बीजारू, छठ को छाबड़ी, सप्तमी को स्वस्तिक और अंतिम दिन किलाकोट बनाया जाता है।

खेल-खेल में गाते हैं गीत

 पुराने समय में अधिकांश घरों में लड़कियों को बाहर जाकर खेलने की अनुमति नहीं होती थी, ख़ासकर जब उनकी आयु विवाह योग्य हो जाए। ऐसे में संजा के दिनों में जब सहेलियां इकट्‌ठा होकर संजा माता का पूजन करती थीं तो वे लोकगीतों के साथ अंगना में ही बैठकर खेले जाने वाले छोटे-मोटे खेलों को भी इसमें शामिल कर लेती थीं। लड़कियां अपने घरों से प्रसाद को एक डिब्बे में बंद करके लाती थीं और लोकगीत गाते हुए उस डिब्बे में प्रसाद को ऊपर-नीचे करती थीं। प्रसाद की आवाज़ और सुवास से अन्य सहेलियां उस प्रसाद का अनुमान लगाकर बताती थीं और मिल-बांटकर उसे खाया जाता था। अंधेरा होने से पहले लड़कियां अपने घरों को लौट जाती थीं।

पार्वती जी लौटती हैं पीहर जनश्रुतियों के अनुसार, संजा का सम्बंध ब्रह्मा जी की पुत्री से भी बताया जाता है। शिवपुराण में सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा जी की पुत्री संध्या के बारे में विवरण है। संध्या ने चंद्रभाग पर्वत पर जाकर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। श्राद्ध में इस उत्सव को मनाने के पीछे कारण यह माना जाता है कि इन दिनों देवी पार्वती अपनी मायके लौटती हैं। लोकगीतों के बोल से यह भी पता चलता है कि संजा माता विवाह उपरांत ससुराल में ज़्यादा समय तक प्रसन्न नहीं रह पाई हैं। निमाड़ में यह रीति है कि विवाह के बाद प्रथम वर्ष स्त्रियां संजा का पूजन नहीं करती हैं।

सहेलियों से दूर हो गई संजा

 उत्सव के रूप में संजा अब विलुप्ति की ओर है। आंगन अब सूने पड़ चुके हैं। उनमें लोकगीत के बोल और सहेलियों के उन्मुक्त ठहाके नहीं सुनाई देते हैं। आधुनिकीकरण ने इस लोक उत्सव से मानव और प्रकृति को दूर कर दिया है और कलाकारों के जन्म पर विराम लगा दिया है। संजा गोबर लिपी दीवार से लेकर छपे-छपाए काग़ज़ों तक का सफ़र तय कर चुकी है। हालांकि कला के क्षेत्र में संजा का वर्चस्व पिछली पीढ़ियों ने अब भी जीवित रखा है। दीवारों को सजाने के लिए स्टीकर और तस्वीरों के रूप में संजा की आकृति निमाड़ और मालवा क्षेत्र में उपलब्ध रहती है। बाज़ार में यह कला अपना घर नहीं खोज पाई है लेकिन प्रदर्शनियों में कलाकारों के बल पर इसे एक छोटा-सा कोना अक्सर मिल ही जाता है।

 



 

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